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Subtle Complexities and Myriad Simplicities by Ashok Subramanian P is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.

Monday, March 23, 2015

ग़ज़ल

रात की मृत देह से उठ आई है एक सुप्रभात​,
अन्धेर आँसू पोछने लो आई है यह सुप्रभात,

रुदालियों को कर बिदा, देखो गगन की ठाठ​,
मांग पर सिंदूर सुहागन भरने आई सुप्रभात,

पत्तियों पर गिरके उठता उसके किरणों का जो लय,
भरने बसंती रंग उपवन में लो आई सुप्रभात​,

बागों के गर्दन को सजाने आई है एक सोनपरी,
और ओस की बूंदों के मोती को पिरोने सुप्रभात​,

धरती के अधरों पे है आई एक हँसी यह जान के,
सूखे माटी पे कनक बरसाने आई सुप्रभात​,

विश्व के सागर में उठते हैं लहर वो नाम से,
कहते "हुई अब नींद जागो आ गई है सुप्रभात​",

क्या कहे पत्थर के मूरत सौंपता जब फूल में,
"रात अब भी है तेरी और है मेरी यह सुप्रभात​!",

देखो डगर में घूमते तुम "साँस​" को उलझा यदि,
जान लो सब बन्द हैं मधुशालाएं, हो सुप्रभात​!


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