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Subtle Complexities and Myriad Simplicities by Ashok Subramanian P is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.

Friday, August 13, 2010

पंछी

आज़ाद पंछी!

ईर्ष्या से तुझे निगाहें भर देखता हूँ,
तेरी स्वच्छंद उड़ान,
मेरी अभिलाषा,
क्या मैं इसे कभी महसूस कर पाऊंगा?

हवाओं को ओढ़ते हुए बादलों की नरम छाँव में,
अपने मे ही राजा और रंक समाए,
धरती और आसमान मुलाहिज़ा कर,
क्या मैं अपनी शेष ज़िंदगी गुज़ार पाऊंगा?

डालियों से डालियों पर,
मुल्कों से मुल्कों में,
दिलों से दिलों तक,
क्या मैं ऐसे दृष्टिकोण के क़ाबिल कभी बन पाऊंगा?

अपने दर्मियान फ़ासलों के बावजूद,
इस आत्मा की गुज़ारिश सुनो,
अपनी उड़ान में लहराती उम्मीद से,
हमें निरंतर प्रेरित करते रहो,
उड़ते रहो!

2 comments:

Matangi Mawley said...

excellent! "
"हवाओं को ओढ़ते हुए बादलों की नरम छाँव में..."
Loved the line! and the thought...

Ashok Subramanian P said...

Thank you, Matangi!